ल‌क्ष्मी बाई की वीर गाथा

स्वतंत्रता कि बलिवेदी पर मिटनें वाली वह तो झांसी वाली रानी थी।
मणिकर्णिका के नाम से विख्यात , बचपन कि पहचान पुरानी थी।।
प्यार से बाबा मनु कह कर उसे बुलाते थे।
बाजीराव उसे छबीली कह कर चिढ़ाते थे।।
विठूर में मल्लविद्या, घूडसवारी, और शास्त्र विद्याओं को सीख अपनी एक पहचान बनाई।
तीर,बर्छी,ढाल कृपाण , तलवार चला कर अपनें हुनर कि कौशलता सभी को दिखलाई।।

पिता मोरोपंत के घर काशी में जन्मी,
माता भागिरथी कि संतान निराली थी।।
वह तो सर्वगुणसंपन्न,विलक्षण बुद्धि,और प्रतिभाशाली थी।।

छोटी सी उम्र में व्याह कर झांसी में दुल्हन बन कर आई।
गंगाधर राव से विवाह कर झांसी कि रानी लक्ष्मीबाई कहलाई।।

विवाह के बाद ही एक प्यारे से बेटे को जन्म देनें का सौभाग्य पाया।
नियती के कालचक्र नें उस के बेटे को छीन उस के भाग्य को पलटाया।।
रानी बेटे के वियोग से छुट भी न थी पाई ।
अंग्रेजों ने झांसी को हथियानें कि साजिश रचाई।।
झांसी के लोगों ने उसे दतक पुत्र गोद लेने कि बात सुझाई।
दतक पुत्र को गोद लेकर रानी के चेहरे पर थोड़ी सी रौनक आई।।

नियती को कुछ और ही था मंजूर।
उसके पति को भी छीन रानी से किया दूर।।
पति का निधन हो जानें पर रानी टूट कर बिखर गई।
रानी कि कमजोरी को अंग्रेजी सेना भांप गई।।

दतक पुत्र को गोद लेना लार्ड डलहौजी नें नहीं स्वीकारा।
रानी को संग्राम भूमी में युद्ध के लिए ललकारा।।

झांसी को किसी भी किस्मत पर अंग्रेजों को नही सौपूंगी।
मर जाऊंगी या मिट जाऊंगी लेकिन युद्ध किए बिना नहीं छोडूंगी।

युद्ध का शंखनाद कर रानी ने उन्हें रणभेरी में ललकारा।
दतक पुत्र को पीठ पिछे बांध कर फिरंगियों को दुत्कारा।।
अंग्रेजो के साथ युद्ध के करने का साहस मन में जगाया।।
सेना पति हयूरोज नें अंग्रेजों के साथ मिल कर रानी के साहस को छिन्न-भिन्न कर डाला।
दक्षिणी द्वार को खुलवा कर उस के मनसुबे पर पानी फिरा डाला।।
ग्वालियर कि इस वीरांगना के संग्राम कि अद्भुत कहानी थी।
खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
अपने घोड़े को साथ लेकर संग्राम भूमि में आई।
गौस खां और खुदाबख्श को साथ लेकर एक सैनिक टुकड़ी बनाई।।
अपने घोड़े को ले कर युद्ध भूमि में दौड़ी आई।
शत्रुओं को युद्ध भूमि मे ललकारनें आई।।
रण भूमि में ज्वाला,चन्डी,मां दुर्गा बन आई।
अकेली ही शत्रु पर भारी पड़ कर जोर की हूंकार लगाई।।

नदी,नालों, गहरी खाई को भी पार कर अपनी अद्भुत क्षमता दिखाई।।
एक जगह नदी नाले को पार करता हुआ रानी का घोड़ा घायल हुआ।
रानी का शरीर भी लहू से लथपथ हो कर झाड़ियों के पीछे था जा टकराया।।
रानी नें भी पीठ न दिखानें का संकल्प अपने मन में दोहराया।
मर जाऊंगी मिट जाऊंगी कभी शत्रु ओं के हाथ नहीं आऊंगी।
अपनें लहू का कतरा कतरा देकर अपनी झांसी को बचाऊंगी।।

आखिर कार ग्वालियर के पास एक कुटिया तक थी ही पहुंच पाई।
अपनें विश्वसनीय सैनिकों को उसनेंअपनें प्रण कि दी दुहाई।।

कुटिया में पहुंच कर अपने प्राणों का बलिदान दे जरा भी न घबराई।
ईंट का जबाव पत्थर से दे कर जरा भी विचलित न हो पाई।
उन के सैनिकों ने कुटिया को जला कर रानी का दाह संस्कार किया।
उसकी अटल प्रतिज्ञा का मान रख कर उस के शरीर को अग्नि के हवाले किया।।
उसकी लाश अंग्रेजों के हाथ भी न आ पाई थी।
वह अपनी मर्यादा कि लाज रख कर सचमुच जीत पाई थी।।
उसकी गौरवगाथा ग्वालियर आज भी हमें रानी लक्ष्मी का स्मरण करवाती है।
स्मारक स्थल की पहचान बन उसकी वीरता कि सच्ची झलक हमें दिखलाती है।।

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