हाय! रे मानव”(कविता)

10/3/2019

वह दिन भी थे कितनें प्यारे।

गांव में थे हरे भरे खेत हमारे।।

खेतों में अब चारों ओर बन गए मकान।

खेत हो गए बिल्कुल उजाड़ समान।।

बच्चे जहां खलियान में सुबह से शाम तक धमा चौकड़ी मचाते थे।

सारा दिन खेल खेल कर नहीं उकताते थे।।

खलिहानों में भी  अब तो बन गए  हैं मकान।

बुजुर्गों के रहे सहे स्वपन भी हो गए नाकाम।।

जहां चारों और पक्षियों के कलरव  और मोरों की गूंजन थी सुनाई देती।

चारों तरफ  अब अंधेरे की काली परत ही छाई रहती।।

जहां सुबह उठते ही बैल, और हल लेकर किसान सारा दिन खेतों में था दिखाई देता।

चारों और दूर दूर तक खेतों में  अब कोई नहीं दिखाई देता।।

खेतों में अब कोई नहीं करता है काम।

बुजुर्ग और परिवार के सदस्य भी हो गए हैं परेशान।।

हर कोई सुबह उठने का नाम नहीं लेता है।

हरदम बैठे-बैठे दादागिरी किया करता है।।

मिलजुलकर जहां पहले  स्त्रियाँ करती थी  घर के सारे काम।

अकेली खुश हो कर करती है  अब  दुआ सलाम।।

बुजुर्गों के संस्कार सारे मिट गए।

उनके समृति चिन्ह भी अब घर से हट गए।।

युवक भी हल छोड़ कर नौकरी की तलाश में शहर को   निकल पड़ा।

धन कमानें की चकाचौंध में अपना आज बिगाड़ पड़ा।।

जहां चारों ओर थी हरियाली ही हरियाली।

चारों तरफ अब आपाधापी  है छाई।।

सारी की सारी फसलें बन्दरों और सुअरों ने उजाड़ खाई।

रही सही कसर किसानों नें जहरीली खाद डाल कर गंवाई।।

जहां सब का था एक ही सपना।

खुशहाल हो गांव का हर कोई अपना।।
बच्चे और परिवारों में एकता समाप्त हुई।
हाय! हर घर घर के गांव की ये क्या दुर्दशा हुई।।

गांव के हर युवक और बुजुर्गों  का है अब यही स्वप्न।

शहर या गांव में अकेला रह कर रहें अपनी धुन में मग्न।।

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